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छुट गए हम जो असीर-ए-ग़म-ए-हिज्राँ हो कर / 'रशीद' रामपुरी
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छुट गए हम जो असीर-ए-ग़म-ए-हिज्राँ हो कर
उड़ गया रंग-ए-रूख़-ए-यार परेशाँ हो कर
कूचा-ए-यार से उट्ठे न परेशाँ हो कर
मिल गए ख़ाक में ख़ाक-ए-दर-ए-जानाँ हो कर
साथ अपने दिल-ए-बीमार को लेते जाओ
क्यूँ हों हम तुम से खज़ल तालिब-ए-दरमाँ हो कर
न गिला तुम से सितम का न वफ़ा का शिकवा
क्या करोगे मिरे अहवाल के पुरसाँ हो कर
हाल अपना जो बयाँ करता हूँ लोगों से ‘रशीद’
देखते हैं मिरी सूरत वो परेशाँ हो कर