जगह जानी पहचानी / दिनेश कुमार शुक्ल
औने-पौने में निबटा कर गेहूँ अरहर
मण्डी से घर लौट रहे थे राम मनोहर
रस्ता जाना पहचाना था
पर गाड़ी में जुते बैल
जाने क्यों रह-रह बिचक रहे थे
कभी ठमक कर रुक जाते
तो कभी उठाकर कान न जाने क्या सुनते थे
सब कुछ बिल्कुल ज्यों का त्यों था
झरबेरी कुस काँस और सरपत में छुप कर
बैठे थे बटमार ऊँघते बीड़ी पीते,
थरेपार का नाला बहता चला जा रहा था ऊसर में,
मण्डी में आढ़तिये ने डंडी मारी
ब्लाक प्रमुख उसका ही लड़का चुना गया था,
गन्ने की परची के पैसे तीन साल से नहीं मिले थे,
लाही को अबकी फिर लस्सी चाट गई थी,
छँटनी के शिकार मंझले घर आ बैठे थे,
जीना दूभर कर रखा था
स्कूटर के चक्कर में छोटे दमाद ने,
ऊपर-ऊपर सब कुछ बिल्कुल ज्यों का त्यों था
लेकिन कुछ था जो अमूर्त था
वही मूर्त होने वाला था
ठोस प्रमाणित तल के ऊपर चलते-चलते
सिद्ध पथिक भी डूब रहे थे चट्टानों में
रियाँ रुसाह बबूल नीम की घनी जड़ों में
स्नायुतंत्र धरती का बेहद उत्तेजित था,
आज हवा में भी खिंचाव था
एक अगोचर-सी झिल्ली में
बँधी हुई थी दुनिया जैसे किसी गर्भ में
दो पाटों से साबुत अगर बच गया कुछ तो
नया वक्त उसके भी धुर्रे उड़ा रहा था
दूर फेंकता था चुम्बक भी अब लोहे को,
पत्थर तक को जला रहा था वर्षा का जल,
नाते-रिश्ते, बोली-बानी, गुणा-भाग सब बदल रहे थे
पलट-पलट कर अपने ही पदचिन्ह देखता चलता जीवन
लेकिन कोई और अदृश्य उपस्थिति भी थी
उसके भी पदचिन्ह हू-ब-हू वैसे ही थे!
भैरों टीले का ककंड़ का ढेर
नीम की खुली हुई जड़
बँधा हुआ था कच्चा धागा पीपल के सूखते ठूँठ से
वहीं देह से अलग आत्मा
बैठी थी साकार, ठोस, मटमैली, गुमसुम-
राम मनोहर ठमके, ठमके बैल, रुक गई चलती गाड़ी
यह तो उनकी ही आत्मा थी
उनकी छोटी बेटी जिसको मार-पीट कर
उसका पति ही डाल गया था आज सबेरे
स्कूटर स्कूटर बेटी बोल रही थी बेहोशी में