जग रही थी रात भर सुधिहीन मैं / हनुमानप्रसाद पोद्दार
जग रही थी रात भर सुधिहीन मैं।
थी सुखी प्रियके स्मरणमें लीन मैं॥
नित्य ही जगते निशा यों बीतती।
श्यामकी स्मृति-खान तदपि न रीतती॥
आज प्रातः सहज झपकी आ गयी।
वह मुझे मधुपुरीमें पहुँचा गयी॥
देखकर मैं दशा विचलित हो गयी।
उसी क्षण मन-शान्ति मेरी खो गयी॥
वाटिकामें घूमते वे श्याम थे।
दुखी व्याकुल हो रहे अविराम थे॥
नेत्र थे आँसू-सलिल बरसा रहे।
विकलताको और भी सरसा रहे॥
’हा प्रिये! हा राधिके! हृदयेश्वरी!
हा सकल सुखसाधिके! प्राणेश्वरी॥
लोग कहते यहाँ अति सुख-साज है।
देखता मैं, छा रहा दुख-राज है॥
है नहीं तेरे बिना सुख एक पल।
चिा अधिकाधिक हुआ जाता बिकल॥
बिलखते यों पड़े सहसा भूमिपर।
दौड़ मैंने ले लिया निज गोद सिर!
हाय! इतनेमें तुरत मैं जग गयी!
अग्रि दारुण प्राणमें बस, लग गयी॥
सोचती हूँ, तभीसे मैं मन दिये।
हो रहे क्योंविकल प्रिय मेरे लिये॥
रूप-गुणसे हीन तुच्छ नगण्य मैं।
कुमति, कुत्सित-भाव नित्य जघन्य मैं॥
है रिझानेको नहीं गुण एक भी।
निन्दनीय नितान्त दोष भरे सभी॥
हूँ नहीं मैं कभी उनको भूलती।
इसी कारण, बस, जो रहती झूरती-
सदा उनके सरल मनमें मैं बुरी।
(यह) स्मृती ही आघात करती बन छुरी॥
भूल उनको मैं अगर जाऊँ अभी।
तो न हो फिर दुःख प्रियतमको कभी॥
प्राणका आधार है प्रियका स्मरण।
प्राण हर लेगा तुरत ही विस्मरण॥
किन्तु दुःख-विमुक्त हों यदि प्राणधन।
लाख ऐसे प्राण दूँगी-सुखी मन॥
श्याम की स्मृति अभी तुम हर लो प्रभो!
मरूँ सुखसे, हों सुखी प्रियतम विभो!॥