जनाज़ा किसी का उठा ही नहीं है ।
मरा कौन मुझमें पता ही नहीं है ।
मुझे खो दिया और लगा उसको ऐसा,
कि जैसे कहीं कुछ हुआ ही नहीं है ।
ये कैसी इबादत ये कैसी नमाज़ें,
ज़ुबां पर किसी के दुआ ही नहीं है ।
चले जिस्म से रूह तक तो लगा ये,
बिछुड़ वो गया जो मिला ही नहीं है ।
यूँ कहने को हम घर से चल तो दिए हैं,
मगर जिस तरफ़ रास्ता ही नहीं है ।
ख़ताओं की वो भी सज़ा दे रहे हैं,
गुनाहों के जिनकी सज़ा ही नहीं है ।
पसीने से मैं अपने वो लिख रहा हूँ,
जो क़िस्मत में मेरे लिखा ही नहीं है ।