भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जन्म अजन्मा, अविनाशी का / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जन्म अजन्मा, अविनाशी का हु‌आ आज अति मंगल-धाम।
 कंस क्रूर के कारागृह में , नँद-घर में प्रकटे अभिराम॥
 परम स्वतन्त्र, अखिल लोकों के एकमात्र जो ईश महान।
 भक्तों के हो पराधीन, वे प्रकटे भक्तिवश भगवान॥

 ग्वाल-बालकों के सँग खेले विविध प्रकार गाँव के खेल।
 वन-वन में गो-वत्स चराये, किया वन्य जीवों से मेल॥
 दधि लूटा, माखन-चोरी की, खूब मचाया शुचि हुड़दंग।
 खूब छकाया, नयी-नयी रच लीला, सबको लेकर संग॥

 दैत्य-दानवों का वध करके, किया सहज उन का उद्धार।
 लघु अँगुली पर गोवर्धन धर इन्द्र-दर्प का किया सँहार॥
 मुरली मधुर बजा, सबको कर मोहित, हरी चि-सपि ।
 दावानल पी, कालिय वशकर, व्रज की दारुण हरी विपि ॥

 मिट्टी खा, फिर दिखलाया मुँह में माता को विश्व अगाध।
 हो आश्चर्य-चकित सुख पाया, उपजी नयी-नयी सुख-साध॥
 गोपीजन के वसन-हरण कर किया आवरण-भंग पवित्र।
 महारास कर प्रेम-रसमयी भगवा की सिद्ध विचित्र॥

 मथुरा पहुँच, किया धोबी का, कुब्जा का मंगल उद्धार।
 मार कुंजवलया को, मुष्टिक-चाणूर मल्ल का कर संहार॥
 पापी कंस क्रूर का वध कर, देकर उग्रसेन को राज।
 करने लगे विविध लीला फिर ज्ञान-शक्ति-लीला-रसराज॥

 कालयवन का सहज दमन कर, जरासंध का हर अभिमान।
 ब्रज से द्वारका में जा माधव, किये विवाह अष्ट सविधान॥
 भौमासुर का वध कर, सोलह सहस राजकन्या ले साथ।
 आये, की कामना पूर्ण, उनको पकड़ा निज मंगल हाथ॥

 पाण्डव-राज-सभा में वध कर, किया सहज शिशुपाल निहाल।
 कर स्वीकार अग्र-पूजनको, ऊँचा किया युधिष्ठिर-भाल॥
 पाण्डव-कौरव समरान्गण में दे अर्जुन को गीता-ज्ञान।
 अखिल लोक अघ-तम-हारी जो, मार्गदर्शिका ज्योति महान॥

 दे अनन्य आश्रय, अर्जुन को किया नित्य निज-जन स्वीकार।
 दिव्य लोक में दिव्य देह धर, करता जो सेवा अविकार॥
 ऐसे सर्वेश्वर जो सर्वातीत, सर्वमय, सर्वाधार।
 प्राकृत-गुण-विरहित जो नित कल्याण-गुण-गणों के आगार॥

 अखिल रसामृत सिन्धु, नित्य सौन्दर्य परम माधुर्यनिधान।
 परम स्वतन्त्र, प्रेमवश लेते प्रेमी को निज प्रियतम मान॥
 पल-पल प्रेम बढ़ाते रहते, करते नित नव-नव रस-दान।
 नित्य-तृप्त, नित नव रस-‌आस्वादन करते, करते रस-पान॥

 राजनीतिविद कुशल, राज्य-निर्माता, नित्य पूर्ण निष्काम।
 सब के दुखहर्ता, सुख-दाता, सब के नित्य सहज हित-धाम॥
 परम सखा प्रिय, परम प्रियतम, परम पिता, गुरु, बन्धु ललाम।
 सहज सुहृद्‌‌, शरणागत-वत्सल, परम वदान्य, आत्माराम॥

 प्रकटे आज देव-मुनि-गो-द्विज-रक्षक सत्य-धर्म-‌आधार।
 करो सभी मिल मुक्त-कण्ठ से उन का पुनः-पुनः जय कार॥
 जय वसुदेव-देव की-नन्दन, जय नँद-नंद, यशोदा-लाल।
 जय प्रेमीजन-मुनि-मन-मोहन, जयति सुकोमल हृदय विशाल॥

 जय नँदबाबा, जयति यशोदा, जय गोपी, जय गैया-ग्वाल।
 जय वंशी, जय यमुना जय-जय, जय वृन्दावन, द्वापर काल॥
 जय वसुदेव, देव की जय-जय, जयति कंस का कारागार।
 जय रोहिणि, बलराम जयति जय, जय उद्धव, अक्रूर उदार॥

 जय मथुरा-द्वारका जयति जय, पटरानी हरि-‌उर की माल।
 जय षोडस सहस्र हरि-गृहिणी, जयति धनंजय कुंती-लाल॥
 जय गीता, भारत महान जय, जयति भागवत लीला-सार।
 जय प्रेमी-ज्ञानी-जन, करते जो प्रभु का महिमा-विस्तार॥