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जबसे सुना सुधामय सुन्दर / हनुमानप्रसाद पोद्दार

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जबसे सुना सुधामय सुन्दर ’श्याम’ नाम अतिशय सुख-धाम।
हु‌ए मुग्ध मन-बुद्धि-प्राण सब चलने लगा नाम अविराम॥
नाम-माधुरीने प्राणोंमें कर दी जाग्रत दर्शन-प्यास।
हु‌आ चिा उत्कण्ठित आकुल चला सुतप्त दीर्घ निश्वास॥
स्नेहमयी शुचि सखी विशाखा देख राधिकाको बेहाल।
चित्रकला-निपुणा, अङिङ्कत कर ला‌ई श्याम-चित्र तत्काल॥
निरख चित्र अति मधुर मनोहर नख-शिख रूप परम रमणीय।
मानो मिले मदन-मद-हर मन-मोहन प्राणकान्त कमनीय॥
हु‌ई हर्षविह्वल विस्मित-मन करने लगी गँभीर विचार।
नहीं त्रिकाल-तीन लोकोंमें ऐसा दिव्य रूप रस-सार॥
जिसके क्षुद्र एक कणको ले सुमनोंका सारा संसार।
सबको सुख दे रहा अमित, कर रूप-माधुरीका विस्तार॥
जिसके कोटि अंशका लेकर एक अंश शुचि नीलाकाश।
विश्व-विमोहित करता विधु-मुख भरकर रूप-सुधामय हास॥
जिसकी एक बूँद-सुषमासे प्रकृति-सुन्दरी कर श्रृंगार।
अगणित विश्व सजाती रहती संतत विविध विचित्र प्रकार॥
अतल रूप-सागर जिसमें नित उठती अतुल अनन्त तरंग।
है न्यौछावर जिसके एक-‌एक कणपर नित अमित अनङङ्ग॥
कैसे किया सु‌अङिङ्कत उसको लघुतम पटपर सखिने आज?
कैसे एक-‌एक अवयवपर सजा सकी वह सुन्दर साज?
कैसे द्रवित न हृदय हो गया? कैसे रहा धैर्यका बन्ध?
कैसे खसी न हस्त-तूलिका पाकर श्याम-रूप-सबन्ध?
कैसे क्षुद्र तूलिकामें वह आया रूप-समुद्र महान?
मन-‌अतीत नित बुद्धि-‌अगोचर कैसे उसे सकी सखि जान?
जाग उठी सुस्मृति, उर अन्तर लगा दीखने रूप ललाम।
जो चिर अंकित था, अब प्रकटी पूर्ण मिलन-‌इच्छा अभिराम॥
पर, न हो सकी पूर्ण सदिच्छा, अमित यन्त्रणा बढ़ी तुरन्त।
बड़वानल अति विषम जल उठा, उठी हृदयमें हूक दुरन्त॥
हु‌आ युगों-सा एक-‌एक पल रहा न रंचक धैर्य-विवेक।
सूखा हृदय, अश्रु-दृग सूखे, एकमात्र प्रिय दर्शन-टेक॥
सहसा प्रगट हो गये प्रियतम अनुपम मधुर लिये मुसकान।
चकित-प्रहर्षित लगी देखने, उमड़ा सुख-समुद्र निर्मान॥