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जब-जब बुखार आता है / रामगोपाल 'रुद्र'

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जी में होता है, तुम सिरहाने होते;
सिरहाने मेरे, दो-दो आँसू रोते;
मेरे ललाट पर छन-छन सुधा छहरती;
सिर पर, चन्‍दन की छाँह बने, घन सोते;
तुम नहीं, मगर, तुम से भी सरल तुम्हारा,
तब-तब अधीर, उमड़ा दुलार आता है!

ज्वर की लहरों का ज्वार उधर चढ़ता है,
लहरों पर मेरा चाँद इधर बढ़ता है;
तब निबिड़ निशा ही बन जाती है पूनम;
सिरहाने, मन का चाँद मन्‍त्र पढ़ता है!
अफसोस! काश! यह ज्वार चढ़ा ही रहता!
जिसकी डोरी धर, गया प्यार आता है!

ज्वर जाकर जब भाटा बनकर आता है,
क्या कहूँ कि मन तब कैसा हो जाता है!
दुपहर का सूरज भी चन्‍दा-सा लगता
उतरा खुमार ऐसा तुषार लाता है!
बज उठती अपनी साँस, भरम हो आता;
आता है काल, मुझे पुकार जाता है! !