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जब कभी हो ज़िक्र मेरा / जयप्रकाश मानस

याद करना

पीठ पर छुरा घोंपने वाले मेरे मित्रों के लिए

मेरी प्रार्थनाएँ “हे प्रभु इन्हें माफ़ करना”


याद करना

हारी हुई बाज़ी को जीतने की क़शमक़श

पूर्वजों के रास्ते कितने उजले कितने घिनौने

कि ग्रह नक्षत्र,तारों में छप गये वे लोग उजले लोग


याद करना

सम्बे समय की अनावृष्टि के बाद की बूँदाबाँदी

संतप्त खेतों में नदी पहाड़ों में हवाओं में

कि नम हो गई गर्म हवा

कि विनम्र हो उठा महादेव पहाड़ रस से सराबोर

कि हँस उठी नदी डोंडकी खिल-खिलाकर

कि छपने लगी व्याकरण से मुक्त कविता की

आदिम किताबसुबह दुपहर शाम छंदों में

वह मैं याद करना


याद करना

ज़िक्र जिसका हो रहा होगा

वह बन चुका होगा

वह बन चुका है वनस्पति कि जिसकी हरीतिमा में

तुम खड़े हो बन चुका है आकाश की गहराइयाँ

कि जिसमें तुम धंसे हो


याद करना

न आये याद तो भी कोशिश करना तो करना

कि अगली पीढ़ी सिर झुका कर शर्म से

कुछ भी न कह सके हमारे बारे में

जब कभी हो ज़िक्र हो मेरा