जब कुछ भी शेष नहीं रहता सोचने को / विमलेश त्रिपाठी
जब कुछ भी शेष नहीं रहता सोचने को
एक पेड़ जन्म लेता है
मन की घाटियों में कहीं
बढ़ता है धीरे-धीरे
अपनी आदत में निमग्न
नीचे उसके कबड्डी चीका
सूरजा चमार के साथ गुल्ली डंडा
छुआ-छूत के खेल
बेतहाशा भागते छुपते-छुपाते हम
शरारती बच्चों की टोलियाँ
और....
... कितना पानी घो-घो रानी
... कितना पानी घो-घो रानी
और दवनी करते बकुली बाबा
और खलिहान में रबी की लाटें
और घास चरती बकरियों से
बतियाती बंगटी बुढ़िया
और ढील हेरती औरतें
और खईनी मलते चइता की तान में
मगन दुलार चन काका
और धीरे-धीरे हमारी
मूँछों की गहराती हुई पाम्ही
छाया उसी पेड़ की हमारे
नादान दिनों की साक्षी
जब कुछ भी शेष नहीं रहता सोचने को
अपने अतीत में हम शिशु हो जाते हैं
और एक पेड़ की परिक्रमा करते हुए
गहरे स्मृति के क्षणों में
हम आख़िरी बार जी रहे होते हैं