भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जब मेरा हर ज़ख़्म गहरा हो गया / अज़ीज़ आज़ाद
Kavita Kosh से
जब मेरा हर ज़ख़्म गहरा हो गया
दर्द से पुरनूर चेहरा हो गया
एक क़तरे का करिश्मा देखिए
इस कदर तड़पा के दरिया हो गया
शाम के काँधे पे सूरज क्या झुका
सारी दुनिया में अँधेरा हो गया
चाँद उतरा जब हमारे सहन में
चाहतों का रंग सुन्हेरा हो गया
जब थके-माँदों को नींद आने लगी
एक झपकी में सवेरा हो गया
ज़िन्दगी ज़हरीली नागिन है ‘अज़ीज़’
इस के पीछे क्यूँ सँपेरा हो गया