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जब मेरा हर ज़ख़्म गहरा हो गया / अज़ीज़ आज़ाद

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जब मेरा हर ज़ख़्म गहरा हो गया
दर्द से पुरनूर चेहरा हो गया

एक क़तरे का करिश्मा देखिए
इस कदर तड़पा के दरिया हो गया

शाम के काँधे पे सूरज क्या झुका
सारी दुनिया में अँधेरा हो गया

चाँद उतरा जब हमारे सहन में
चाहतों का रंग सुन्हेरा हो गया

जब थके-माँदों को नींद आने लगी
एक झपकी में सवेरा हो गया

ज़िन्दगी ज़हरीली नागिन है ‘अज़ीज़’
इस के पीछे क्यूँ सँपेरा हो गया