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जलेगा चमन तो धुआँ भी उठेगा / डी. एम. मिश्र

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जलेगा चमन तो धुआँ भी उठेगा
धुआँ जो उठेगा तो सबको दिखेगा

अकेला नहीं घर है बस्ती में मेरा
मेरा घर जलेगा तो किसका बचेगा

अभी आप के हाथ में है चला लें
यही अस्त्र कल आप पर भी चलेगा

अदावत करे लाख मुझ से ज़माना
झुका है न यह सर , न आगे झुकेगा

यही साँप जो पल रहा आस्तीं में
रहे याद कल यह तुम्हें भी डसेगा

सितमगर तुझे मेरी चेतावनी है
हमेशा यही वक्त थोड़े रहेगा

यही शाम को रोज़ महसूस होता
भले कोई मौसम हो सूरज ढलेगा

उसी को मगर याद रखेगी दुनिया
जो सुकरात बनकर ज़हर भी पियेगा