भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जल दैत्य / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जल दैत्य कैद से बाहर हो गया था
या कि कर दिया गया था
कौन जाने
पर वो विकराल काल चौबीस जि़ंदगियों को
कुछ ही पलों में निगल गया था
जल दैत्य प्यासा ही नहीं भूखा भी होता है
इतना कि आया खाया और चला गया
यह नहीं देखता कि सामने कौन है
सब आँखें फाड़े देखते ही रह गए
कुछ सोचते या करते इससे पहले ही
वो अदृश्य हो गया
वो सब युवाओं के सपनों, आकांक्षाओं, अरमानों का
एक झटके में खून कर गया
उसके तांडव के आगे कोई कुछ न कर सका
वो सारे हथियारों से लैस था
सब थे निहत्थे
लोग चीखे-चिल्लाए-रोए-गिड़गिड़ाए उसने एक न सुनी
बस पंजों में एक एक कर सबको दबोच लिया
जल दैत्य सुन
मेरे बेटे के सपने थे अधूरे
मेरी बेटी की कुछ ही दिनों में होने वाली थी शादी
मेरी बेटी अपने फौजी पिता से एक साल बाद अब मिलने वाली थी
जल दैत्य अभी-अभी मिली वाट्सअप फोटो में मेरी बेटी हँस रही थी
मेरे बेटे की आँखों में अभी-अभी प्यार के अंखुए फूटे थे
मेरी बहन उत्साह से लबरेज़ थी
मेरी सहेली अपनी पहली तनख्वाह की खुशिया मना रही थी
तुझसे किसी माँ, बहन, बेटी, सहेली की खुशिया देखी नहीं जातीं
तू बेरहम, हत्यारा, वधिक, बेशर्म, जड़ है
जल दैत्य तू घोर अहमक है
काश! तेरे भी कोई संतान होती
तुझमें भी ममता होती
कुछ तो दया भाव होता
तू जनक होता
तू जननी होता
तेरे पास धड़कता दिल होता
तो समझता संतान की मौत क्या होती है
मैं माँ
कोसती हुई तुझे बहुत लाचार हूँ
मेरी पीड़ा तू क्या समझेगा
जल दैत्य
जल दैत्य तू इसी पल नष्ट हो जाए
यह धरती तुझे निगल जाए
यह समंदर तुझे खा जाए
जैसे तू खा गया हमारे बच्चों को
वैसे ही यह काल तुझे खा जाए
तेरे भीतर ब्रह्माण्ड का सारा दु:ख समा जाए
जल दैत्य तू इसी वक्त इसी क्षण मौत को भा जाए
वक्त तुझ वधिक की शक्ल अब मुझे कभी न दिखाए
तू कभी न आए जलदैत्य कभी भी नहीं