भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जहाँपनाह और मैं / ब्रजेश कृष्ण
Kavita Kosh से
जहाँपनाह के दो पैर हैं
दो हाथ एक नाक और एक मुँह
ठीक मेरी तरह
जहाँपनाह सिंहासन पर बैठते हैं
तो शरीर को मोड़ते हैं ठीक वहीं से
जहाँ से मैं मोड़ता हूँ
अपनी कुर्सी पर बैठे हुए
जहाँपनाह को भूख लगती है
नींद आती है और लगता है डर
जहाँपनाह को गुस्सा भी बहुत आता है मेरी तरह
कृपया इसे बग़ावत न समझें
आपकी तरह इतना तो मैं भी जानता हूँ
कि कुछ भी हो
जहाँपनाह, जहाँपनाह हैं
और मैं, फ़क़त मैं
लेकिन बात यहाँ ख़त्म नहीं होती
मैं चाहता हूँ कि कम से कम
बात वहाँ तक तो हो जहाँ
जहाँपनाह की नज़र में
इसे समझा जाये बग़ावत की शुरुआत
ठीक मेरी तरह।