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जहाँ सोच रही है धूप / सविता सिंह
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ख़ौफ़नाक हैं आवाज़ें
जो फैल रही हैं वातावरण में
आने वाले कठिन दिनों की शुरुआत हैं वे शायद
जब लगभग सभी पक्षी बाहर हैं खुले में
और मधुमक्खियाँ व्यस्त छत्ता बुनती पुराने घर के कमरे में
दोपहर की कड़ी धूप में शुरूआत होती है अनायास
विचारों में संघर्ष की
यह दोपहर है इक्कीसवीं सदी की
किसी शान्त तालाब के किनारे
जहाँ बाईसवीं सदी पर सोच रही है धूप