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ज़ख़्मे-दिल ताज़ा हुए, लौ दे उठी तन्हाइयाँ / अनु जसरोटिया
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ज़ख़्मे-दिल ताज़ा हुए, लौ दे उठी तन्हाइयाँ
फिर लहू का ज़ायक़ा चखने लगीं पुर्वाइयाँ
झूठ छुप सकता नहीं तुम लाख पर्दे डाल दो
झूम कर अंगड़ाई लंेगी एक दिन सच्चाइयाँ
ऊँचा उठना हो जिन्हें उन के लिये ज़ीने बहुत
गिरने वालों के लिये मौजूद गहरी खाइयाँ
ऐसी भी कुछ हैं अभागिन लड़कियां इस शहर में
बज न पाई जिन की शादी की कभी शहनाइयाँ
आ किसी दिन रूह में, दिल में समाने के लिये
याद करती हैं तुझे अब रूह की गहराइयाँ