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ज़माने से औरत सतायी हुई है / डी. एम. मिश्र

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ज़माने से औरत सतायी हुई है
नहीं ख़त्म होती जो वो त्रासदी है
 
दरिंदे इधर तो उधर भेड़िये हैं
बचे कैसे हिरनी मुसीबत बड़ी है

कोई डर दिखाता कोई देता लालच
कोई बोलता है कि मछली फंसी है

महल में हो या झोपड़ी में हो औरत
जहाँ भी हो औरत कहानी वही है

सरलता ही देखी है औरत की तूने
प्रलय भी मचा दे ये ऐसी नदी है

जो आँगन में कल तुमको अबला दिखी थी
समर में वही आज चंडी बनी है

बहुत देर से साँप पीछे पड़ा था
पर अब मोरनी भी वो तनकर खड़ी है

पतंगों को जाकर ख़बरदार कर दो
ज़माना नया है, नयी रोशनी है