भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़मीं पर किस क’दर पहरे हुए हैं / पवन कुमार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज


ज़मीं पर किस क’दर पहरे हुए हैं
परिंदे अर्श पर ठहरे हुए हैं

बस इस धुन में कि गहरा हो तअल्लुक’
हमारे फ़ासले गहरे हुए हैं

नज’र आते नहीं अब रास्ते भी
घने कुहरे में सब ठहरे हुए हैं

करें इन्साफ’ की उम्मीद किससे
यहाँ मुंसिफ़ सभी बहरे हुए हैं

वही एक सब्ज़ मंज़र है कि जब से
नज़र पे काई के पहरे हुए हैं

अर्श = आकाश, मुंसिफ’ = न्यायाधीश, सब्ज़ = हरा रंग