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ज़मीं पर हम हैं, ऊपर आसमां है / ध्रुव गुप्त
Kavita Kosh से
ज़मीं पर हम हैं, ऊपर आसमां है
कहीं कुछ बीच में अटका पड़ा है
हमारी ज़िद कभी पूरी न होगी
ख़ुदा जैसे इसी ज़िद पर अड़ा है
कभी मिलने में थी कैसी ख़ुमारी
नहीं मिलने में भी कैसा नशा है
सितारों पर बसर की बात छोड़ो
अभी इक आशियाना मुद्दआ है
न मैं ख़ुद हूं, न तू, ना ग़ैर कोई
मेरी तनहाई का मंज़र जुदा है
मेरे सौ काम कब से मुल्तवी हैं
मेरे सीने पे चढ़कर क्यों खड़ा है
जो क़ातिल है अभी अन्दाज़ तेरा
मेरा चुप इन दिनों मेरी अदा है
मैं हमबिस्तर हूं गोरी चांदनी से
मेरे कमरे का दरवाज़ा खुला है
अभी है शाम तो अपना ही साया
हमारे क़द से भी कितना बड़ा है
अभी एक जख्म आया था कहीं से
अभी एक शेर हमने भी कहा है