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ज़रा सा दिल लगा कर लौट आए / ध्रुव गुप्त
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ज़रा सा दिल लगा कर लौट आए
बहुत दामन जला कर लौट आए
नदी की रेत पर कुछ नक्श छोड़े
किनारे पर नहा कर लौट आए
किताबों में था दुनिया का तजुर्बा
जहां बचपन गवां कर लौट आए
वहां अपने सिवा कोई नहीं था
वहीं से मुंह छिपा कर लौट आए
कहां एक नींद का वादा था हमसे
कहां बिस्तर लुटा कर लौट आए
शिक़स्तों की कहानी कौन सुनता
सफ़र से मुस्कुरा कर लौट आए
जहां रहना है रहकर मुतमईन हैं
जहां जाना था, जा कर लौट आए