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ज़रूरी / ज़िन्दगी को मैंने थामा बहुत / पद्मजा शर्मा
Kavita Kosh से
मुझे याद आती हैं गाँव की वे दोपहरियाँ
जिनमें माँ फटे पुराने साल भर के कपड़े इकठे कर गुदडिय़ाँ बनाती थी
रज़ाइयों में डोरे डालती थी
गर्मियों से ही करने लगती थी इकठा घी
सर्दियों में गोंद-सौंठ के लड्डू बनाने के लिए
और बची खुची दोपहरियों में
जब सब के लिए ठंडाई पीसती
तो घर भर जाता था सौंफ की खुशबू से
हम भाई-बहन घर-घर खेला करते थे
और कितना लड़ा और हँसा करते थे
अब पास न माँ हैं न भाई बहन
सब दूर-दूर, इतने दूर कि मिलने पर भी, बनी रहती है
एक निश्चित दूरी
समझ नहीं आता कि जब अतीत खिलखिलाता है
तब वर्तमान चुपचाप आँसू क्यों बहाता है
एक झीना-सा आवरण आ गया है बीच हमारे
जिसे हटाना हो गया है ज़रूरी