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ज़िंदगी को समझने में देरी हुई / डी. एम. मिश्र
Kavita Kosh से
ज़िंदगी को समझने में देरी हुई
चोट खाकर संभलने में देरी हुई
हाथ पर हाथ धरकर मैं बैठा रहा
उनके दिल में उतरने में देरी हुई
ढल चुकी रात होने को आयी सहर
उनसे वो बात कहने में देरी हुई
कारवाँ जा चुका होगा जाने कहाँ
मुझको कपड़े बदलने में देरी हुई
बेख़बर वो रहा पेड़ कटता रहा
उस परिंदे को उड़ने में देरी हुई
ज़िंदगी सबको देती है मौक़ा मगर
सो रहा था मैं जगने में देरी हुई