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ज़िंदगी में जब ग़मों का दायरा बढ़ने लगा / डी. एम. मिश्र

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ज़िंदगी में जब ग़मों का दायरा बढ़ने लगा
आसमाँ सर पर समन्दर की तरह हिलने लगा।

वो गया पीछे न उसके तीर भी छोडा नहीं
जाल में पंछी शिकारी के स्वयं फँसने लगा।

भूख से बेहाल बेटा माँ न लौटी खेत से
दुधमुँहा बचपन अभी से जुल्म से लड़ने लगा

देर हो जायेगी तो देगा जहरमोहरा न काम
विष नसों को पार कर है प्राण में घुलने लगा।

कल तलक थे सोचते वो तो अभी दिल्ली में है
किन्तु अब तो गाँव में भी भेड़िया दिखने लगा।