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ज़िंदगी में मेरी तूफ़ान उठाता क्यूँ है / सिया सचदेव
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ज़िंदगी में मेरी तूफ़ान उठाता क्यूँ है
दिल में सोये हुए जज़्बों को जगाता क्यों है
एक ही मौज बहा कर इसे ले जायेगी
रेग ए साहिल पे घरौंदों को बनाता क्यूँ है
उस पे क्या होगा दिल ए ज़ार तेरे ग़म का असर
ग़ैर है ग़ैर से उम्मीद लगाता क्यूँ है
मैंने कब उससे रिआयत की गुज़ारिश की थी
वो हर इक बात पे एहसान जताता क्यूँ है
दिल ए नादाँ तू ज़रा ज़ब्त भी कर लेना सीख
बेबसी अपनी ज़माने को सुनाता क्यूँ हैं
राख का ढेर ही कर दे के बिखर जाऊ मैं
गीली लकड़ी की तरह मुझको जलाता क्यूँ है
हो चुका तर्क ए ताल्लुक़ तो सिया ज़ालिम दिल
अब भी पहले की तरह मुझको सताता क्यूँ हैं