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ज़िन्दगी तुझ को भी और तेरा तमाशा देखूँ / धीरेन्द्र सिंह काफ़िर
Kavita Kosh से
आसमाँ खोल दिया पैरों में राहें रख दीं
फिर नशेमन पे उसी शख़्स ने शाख़ें रख दीं
जब कोई फ़िक्र जबीं पर हुई रक़्साँ मैं ने
ख़्वाब आँखों में रखे आँखों पे पलकें रख दीं
दरमियाँ ख़ामुशी पहले तो न आई थी मगर
बातों बातों में ही उस ने कई बातें रख दीं
उस ने जब तोड़ दिए सारे तअ'ल्लुक़ मुझ से
खींच कर सीने से फिर मैं ने भी साँसें रख दीं
मेरी तन्हाई से तंग आ के मिरे ही घर ने
आज थक-हार के दहलीज़ पे आँखें रख दीं