भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
ज़िन्दगी से-2 / मरीना स्विताएवा
Kavita Kosh से
तुम ज़िन्दा नहीं पकड़ सकोगी मेरी आत्मा,
पंख की तरह वह आ नहीं सकेगी पकड़ में ।
ओ ज़िन्दगी, तू प्राय: ही तुक बनती है झूठी,
सुन, धोखा नहीं खा सकते कान गानेवाले के ।
तुम खोज नहीं हो किसी प्राचीन निवासी की,
जाने दो मुझे दूसरों के तट की ओर ।
ओ ज़िन्दगी, चर्बी से जुड़ती है तुम्हारी तुक
संभालो उसे, ज़िन्दगी ! तुम एक बोझ हो भारी मेरे लिए ।
पाँवों की हड्डियों पर निष्ठुर अंगूठियाँ
हड्डियों तक भी लग रही है जंग ।
थक गई है इन्तज़ार करते-करते
ज़िन्दगी की छुरियों पर नाचती प्रेयसी ।
रचनाकाल : 28 दिसम्बर 1924
मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह