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ज़िन्दगी से किस कदर डरने लगा है आदमी / मृदुला झा
Kavita Kosh से
आँकड़ों की जाल में फँसने लगा है आदमी।
प्यार के गंगो-जमन में अब नहाने की जगह,
नफ़रतों की आग में जलने लगा है आदमी।
नाव दरिया पाल मांझी चल किनारा पास है,
मौज दरिया देखकर बढ़ने लगा है आदमी।
जाम साकी स्नेह का प्याला लिए है हाथ में,
खुद से ही नरगीसियत करने लगा है आदमी।
झांकना तो था उसे खुद अपने दामन में मगर,
दूसरों पर तोहमतें मढ़ने लगा है आदमी।
शाम को मिलना हुआ था झील के उस पार में,
क्या पता था मौत भी गढ़ने लगा है आदमी।