भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

ज़िन्दा तमाम उम्र हूँ उज़रत के सहारे / फूलचन्द गुप्ता

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

ज़िन्दा तमाम उम्र हूँ उज़रत<ref>मज़दूरी, भृति, पारिश्रमिक</ref> के सहारे
रोटी मिली तो ख़ार<ref>काँटा, फाँस, द्वेष, जलन</ref> ओ नफ़रत के सहारे

वे बह्न<ref>समुद्र, सागर</ref> तक गए नहीं, न रेगज़ार<ref>रेगिस्तान</ref> तक
है अब्र<ref>बादल, घटा, बदली, मेघ</ref> उनके मुश्त में<ref>मुट्ठी</ref> दौलत के सहारे

फ़ौलाद से बनी हुई, मज़बूत रीढ़ है
तुम बेल बन गए महज फितरत के सहारे

पा के वगैर देखिए मज़बूत, पाइन्दा<ref>हमेशा, सदैव, सदा, सर्वदा, निरन्तर</ref>
ऊँचा दिखे वो दोश ए जल्वत<ref>जन समर्थन</ref> के सहारे

आ चल निकल पड़ें सफ़र में कायनात के
केवल मिलेगी जीत अब उल्फ़त के सहारे

शब्दार्थ
<references/>