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जाड़े की सुबह / अलेक्सान्दर पूश्किन

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»  जाड़े की सुबह

पाला भी है, धूप खिली है, अद्भुत्त दिन है!
पर तू मेरी रानी अब तक नींद मगन है -
जागो, जागो, मधुरे अब तो जाग उठो तुम
निद्रा सुख में डूबे अपने नयन उघारो,
स्वयं उत्तरी तारे-सी बन ज्योति अनूठी
जाग, उत्तरी विभा-प्रभा की छटा निहारो!

याद तुम्हें, कल कैसा था तूफ़ान भयंकर
घुप्प अन्धेरा-सा छाया था धुँधले नभ पर,
पीला-पीला धब्बा-सा बन चाँद गगन में
झाँक रहा था धूमिल-धूसर मेघ सघन से,
तुम उदास-सी बैठी थीं, आकुल-व्याकुल हो
किन्तु आज ... प्रिय झाँको तो तुम वातायन से :

कैसा निर्मल, कैसा नीला-नीला अम्बर
उसके नीचे ज्यों क़ालीन बिछाकर सुन्दर
सुख से लेटी बर्फ़ चमकती रवि-किरणों में
काली-सी छाया दिखती झलमले वनों में,
ओढ़े पाले की चादर फ़र वृक्ष हरा है
और बर्फ़ के नीचे नाला चमक रहा है।

पीत-स्वर्ण कहरुबा चमक कमरे में छाई
चट-चट जलती लकड़ी, अंगीठी सुखदायी,
बैठ इसी के निकट और कुछ चिन्तन करना
भला लगेगा स्वप्न-जगत में मुक्त विचरना,
किन्तु न क्या ये अच्छा, स्लेज इधर मँगवाएँ
भूरी घोड़ी उसमें हम अपनी जुतवाएँ?

और सुबह की इसी बर्फ़ पर स्लेज बढ़ाएँ
मेरी प्यारी, ख़ूब तेज़ घोड़ी दौड़ाएँ
जाएँ हम सूने खेतों में, मैदानों में
कुछ पहले जो बहुत घने थे, उन्हीं वनों में,
पहुँचें ऐसे वहाँ, जहाँ है नदी किनारा
मेरे मन की ललक, मुझे जो बेहद प्यारा।


रचनाकाल : 1829