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जाल से आगे / रमेश रंजक
Kavita Kosh से
दिन हमें जो तोड़ जाते हैं
वे इकहरे आदमी से जोड़ जाते हैं
पेट की पगडंडियों के
जाल से आगे
टूट जाते हैं जहाँ पर
ग्लोब के धागे
उस मनुजता की सतह पर छोड़ जाते हैं
हम स्वयं संसार होकर
हम नहीं होते
फूटते हैं रोशनी के
इस कदर सोते
हर जगह से देह-पर्वत फोड़ जाते हैं
दिन हमें जो तोड़ जाते हैं