भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जिधर हवाओं का शोर था / सविता सिंह
Kavita Kosh से
उधर जिधर आसमान में घने बादल थे
और बिजली थी
जिधर हवाओं का शोर था
मैदान में पेड़ों की तरह उग आई लहलहाती घास थी
उधर ही मेरा मन था अबाध कब से कुछ सोचता हुआ
साथ में कुछ और न था
बस एक हल्की ख़ुशी थी चीज़ों के यूँ होने की
एक झुरझुरी बदन में जाने कैसी