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जिस पथ पर तुमने थी लिखी चरण-रेखा / रवीन्द्रनाथ ठाकुर

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चरणरेखा तब ये पथे दिले लेखि
चिन्ह आजि तारि आपनि घुचाले कि ।।


जिस पथ पर तुमने थी लिखी चरण रेखा
उसको ख़ुद मिटा दिया आज ।।
जिस पथ पर बिछे कहीं फूल थे अशोक के,
उनको भी घास तले दबे आज देखा ।।
खिलना भी फूलों का होता है शेष
पाखी भी और नहीं फिर से गाता ।
दखिन पवन हो उदास
यों ही बह जाता ।।
तो भी क्या अमृत ही उनमें न छलका—
मरण-पार सब होगा बस बीते कल का ।।


मूल बांगला से अनुवाद : प्रयाग शुक्ल

('गीत पंचशती' में 'प्रकृति' के अन्तर्गत 84 वीं गीत-संख्या के रूप में संकलित)