भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जीने की ज़िन्दगी को कोई वजह तो दे / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
जीने की ज़िन्दगी को कोई वजह तो दे
इस शबनमी सुबह को थोड़ी जगह तो दे।
मैं चाहता हूं जैसा, वैसा न दे, न दे
मेरी तरह नहीं गर, तेरी तरह तो दे।
गर चांद हो मुनासिब, कर दे अता मुझे
हो ना अगर मुनासिब, ठंडी नजर तो दे।
आहें हजार दी गर, जो दी, सो दी, सो दी
आहों में आदमी के थोड़ा असर तो दे।
ठंडा सा ये शहर है, ठंडे से राबिदे
जिसमें हो कुछ हरारत, ऐसा बशर तो दे।
सहरा की ज़िन्दगी दी, तेरा करम है ये
दरिया-ए-रेत में भी कोई शज़र तो दे।