भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

जीवन जिया मैंने / मरीना स्विताएवा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

जीवन जिया मैंने
कहूंगी नहीं ये मरते हुए ।
अफ़सोस नहीं, न ही किसी पर आरोप लगाने की ज़रूरत ।
उन्माद के तूफ़ानों और प्यार के कारनामों से अधिक
और भी हैं ज़रूरी चीज़ें इस दुनिया में ।

तुम जो पंखों से
दस्तक देते थे मेरी छाती पर
अपराधी हो मेरी युवा प्रेरणा के ।
तुम मान लो ज़िन्दा रहने का मेरा आदेश,
मैं भी मानती रहूंगी तुम्हारी हर बात ।

रचनाकाल : 30 जून 1918

मूल रूसी भाषा से अनुवाद : वरयाम सिंह