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जी भर कर जीना है / यतींद्रनाथ राही

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सारा जग वृन्दावन
स्वर्गधाम गोकुल है
ऊधौ!
तुम भटक रहे
नाहक ही
नगर-नगर!

बूँद-बूँद अमृत-घट
छक-छक कर पीना है
जीना है जीवन तो
जी भरकर जीना है
पंख मिले अम्बर के
छोर नाव आने को
बाँहों में व्याकुल है
धरती भर जाने को
पदचापें हेर रही
व्याकुल सी
डगर-डगर!

झुके-झुके शैलश्रृंग
सिमटे हैं लक्ष्य-बिन्दु
बाँधी हैं सरिताएँ
मंथित कर सप्तसिन्धु
रचनाएँ वेदमन्त्र
वन्दनीय संस्कृतियाँ
मानवता रक्षण को
प्राणों की आहुतियाँ
दुहराते यशगाथा
गर्वित हैं
शिखर-शिखर!

कोश-कोश धरती से
शक्तियाँ निचोड़ी हैं
गतियाँ तो सूरज के
घोड़ों की मोड़ी हैं
कोमल थे कमल कभी
हो गए है वज्र भी
वंशी को छोड़ कभी
धर लिया हैं
चक्र भी
धर्मक्षेत्र भी उठा है
कर्म से
सिहर-सिहर।