भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जुल्मत की धूप में पाँव जलते रहे मौला / कबीर शुक्ला
Kavita Kosh से
ज़ुल्मत की धुप से पाँव जलते रहे मौला।
साया तेरी रहमत का तलाशते रहे मौला।
मालूम था बंदगी से ज़िन्दगी नहीं मिलती,
ख़त्ब देखो हम बंदगी करते रहे मौला।
वज़हे-शिकस्तगी थी ख़ामोशी उफ़्तादगी,
ग़म-ए-शिकस्त साकित सहते रहे मौला।
सबाते-उमीद-ख़लूश मुबहम थी लेकिन,
चरागे-एतबार-ए-ख़ुदा जलते रहे मौला।
तुर्फगी-ए-जुनूँ मू-ब-मू परिंदे मानिंद थी,
साँस-दर-साँस हम जुनूँ भरते रहे मौला।
यकीं था कि मिलेगी मंजिल-ए-तस्कीन,
तसव्वुर-ए-उफ़क में रत उड़ते रहे मौला।
ख़ुफ़्ता सरमाए में किसपे एतबार करते,
ग़ाम-दर-ग़ाम सजदे में झुकते रहे मौला।