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जे कुछ देखौ बाहर मेॅ / नन्दलाल यादव 'सारस्वत'

जे कुछ देखौ बाहर मेॅ
कहाँ वहा जे भीतर मेॅ।

उमतैलोॅ छै, ई पछिया
आग लगावै छप्पर मेॅ।

वहाँ नींद केकरा ऐतै
दुख दिखलावेॅ घर-घर मेॅ।

क्रियाशील जो रहेॅ मनुख
दाग पड़ै छै पत्थर मेॅ।

साथ रहै, एकरै मेॅ हित
भूत अटावै अंथर मेॅ।

सारस्वतोॅ के कुछ नै पूछोॅ
फूल उगावै बंजर मेॅ।