भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए
जैसी तुम से बिछुड़ कर मिलीं हिचकियाँ/ रामप्रसाद शर्मा "महर्षि"
Kavita Kosh से
जैसी तुम से बिछुड़ कर मिलीं हिचकियाँ
ऐसी मीठी तो पहले न थीं हिचकियाँ
याद शायद हमें कोई करता रहा
दस्तकें दरपे देती रहीं हिचकियाँ
मैंने जब-जब भी भेजा है उनके लिए
मेरा पैग़ाम लेकर गईं हिचकियाँ
फासला दो दिलों का भी जाता रहा
याद के तार से जब जुड़ीं हिचकियाँ
जब से दिल उनके ग़म में शराबी हुआ
तब से हमको सताने लगीं हिचकियाँ
उनके ग़म में लगी आंसुओं की झड़ी
रोते-रोते हमारी बँधीं हिचकियाँ
उनको ‘महरिष’, तिरा नाम लेना पड़ा
तब कहीं जाके उनकी रुकीं हिचकियाँ.