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जो कहता हूं, कब कहता हूं / अश्वनी शर्मा
Kavita Kosh से
जो कहता हूं, कब कहता हूं
बिना कहे भी कब रहता हूं।
हिस्से-हिस्से में सहता हूं
अपनी कब, जग की कहता हूं।
ये मिज़ाज़ की ही ख़ामी है
वक्त से कुछ आगे रहता हूं।
गर्म हवा ऊपर उठती है
सर्द हवा सा मैं बहता हूं।
तकनीकों की हुई इनायत
बरगद ! गमले में रहता हूं।
मैं हूं सूरज का आईना
धूप हो कैसी मैं सहता हूं।
कांपेगी, लरज़ेगी धरती
मैं कब यूं ही सा ढहता हूं।