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जो हुआ नहीं पृथ्वी में / जयप्रकाश मानस
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जो हुआ नहीं पृथ्वी में
बहुत कुछ होता रहा पृथ्वी में इन दिनों
अभी से कुछ-कुछ हो ऐसा
लौट चले उन सभी को
याद करते रहें
निहायत ज़रूरी दिनचर्या की तरह
जो सब कुछ सौंप कर चुपके से चले गये
हमारे बीच से कोई
जब भी बन जाए पोखर ताल झील नदी या समुद्र
तो भी वह बिना प्रतीक्षा
बहता चला आए
हममें से कुछ प्यासों के पास
हाथी के दाँत जो हों खाने के
हो वहीं दिखाने के
छोटी-मोटी कमज़ोरियों के साथ
सम्भाल ले पूरे सौ पैसे के सौ पैसे
मित्र की एक भी अच्छाई हो तो
गुनगुनाते रहें-गुनगुनाते रहें
जैसे प्रेमपत्र
हर भाषा में साफ़-साफ़ देखी जा सके
पृथ्वी की आयु निरन्तर बढ़ते रहने की अभिलाषा
ऐसा ही कुछ-कुछ कविता में
आज से अभी से
जो हुआ नहीं पृथ्वी में आज तक