ज्योतिबा हुए उदास रै झट चाल नदी पै आगे / सतबीर पाई
ज्योतिबा हुए उदास रै झट चाल नदी पै आगे
एरै न्यू मन मैं सोचण लागे
दुखी था शरीर घणी आत्मा थी परेशान
जिंदगी मैं खोऊं लेकिन सहा नहीं जाता अपमान
नहीं रास्ता अब जीणे का खोणी ए पड़ैगी जान
मौत के सिवाए कोई और तो इलाज नहीं
जिसमैं कोन्या इज्जत, चाहिए ऐसा समाज नहीं
पशु की सै कीमत पर मानव की कीमत आज नहीं
हीणा माणस रहै दास रै कितने रहबर फरमागे
ऐसी ना बीतै किसी मानव के साथ म्हं
ऐसे कड़वे बोल सुणे, बाकी ना गात म्हं
मार पड़ै खाणी इसी गया था बारात म्हं
घरां बुलाकै मेरे संग म्हं ऐसा व्यवहार किया
कितने थे बाराती साथी मेरे को दुत्कार दिया
नहीं बुलाते घर रह जाता कुछ ना सोच विचार किया
मैं सूं जीती लाश रै प्राण मेरे घबरागे
मार्या पिट्या और धमकाया जरा भी ना ख्याल किया
बिना बात मेरे गात का कितना बुरा हाल किया
शूद्र कहकै मेरे को क्यों बारात तै निकाल दिया
बता मेरी इज्जत के रहगी, के मानव से द्वेष नहीं
घटता है मान जहाँ बचता कुछ शेष नहीं
नाक कान एक के मेरा उनके जैसा भेष नहीं
कही बुरी और भली पचास रै कटुवचन छोल कै खागे
नदी के किनारे बैठ सोच रहा गौर तै
पूरा था बहाव जिसमैं पाणी चालै जोर तै
लम्बी और चौड़ी दिखै नदी चारों ओर तै
लगाणी छलांग चाहिए चौगिरदे नै नजर घुमाई
एक भोळी सी टोळी स्याहमी आती हुई दई दिखाई
पाई वाले सतबीर सिंह का एकदम ख्याल पलटाया भाई
पाट्टे देख लिबास झट उनके पीछे भागे