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ज्योति के कण / जगदीश गुप्त

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दीप पूरी तरह जलने भी नहीं पाया
कि जो भी चीज़ थी डूबी हुई
गहरे अन्धेरे में
उभर आई
तमस के निविड़ बन्धन से अचानक
खुल गए आकार
निज अस्तित्व को देते हुए नव अर्थ
        ये हैं कुर्सियाँ, यह मेज़, पेपरवेट, यह दीवार,
        छायाएँ गले मिलने लगीं
        पाकर नया विस्तार,
        जैसे किसी शिल्पी ने दिया हो रूप-रूप सँवार,
        लगता मुझे तिमिराच्छन्न मन में छिपी
        हर अनुभूति को नव रूप, नूतन अर्थ,
        देने के लिए भी चाहिए
        कुछ ज्योति के कण,
        स्नेह के, संघर्ष के क्षण,
        दे सको तो दो।