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झंकृत धरती-आकाश / आत्म-रति तेरे लिये / रामस्वरूप ‘सिन्दूर’

झंकृत धरती-आकाश,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने!

अनुगुंजित अन्तर की घाटी,
नर्तित चलती-फिरती माटी;
बाँसुरी बनी नि:श्वास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने!

जैसे हो वन्दन की वेला,
अर्चन-अभिनन्दन की वेला;
मुखरित निर्जन अधिवास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने!

सुधियों ने अवगुण्ठन खोले,
किसलय दल-सा संयम डोले;
करुणा विगलित उल्लास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने!

युग से सूखे दृग तरल हुए,
पहले जैसे ही सरल हुए;
करतल चूमे सन्यास,
प्राण के तार छू दिये प्राणों ने!