भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

झूलत सघन कुंज पिय-प्यारी / हनुमानप्रसाद पोद्दार

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

झूलत सघन कुंज पिय-प्यारी।
घन गरजत, मृदु दामिनि दमकत, रिमझिम बरसत बारी।
भींजत अंबर पीत, अलौकिक नील सुरंगी सारी।
मद भर मोर-मोरनी निरतत, कूजत कोकिल सारी॥
गावत मधुरे सुर मल्हार मिलि सखिजन अरु पिय-प्यारी।
झौंटे देय झुलावत सखि ललितादिक बारी-बारी॥
चितवत स्यामा-स्याम परस्पर, नित नव रस विस्तारी।
उमडि रह्यो आनंद सरस निधि, सबहि जात बलिहारी॥