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टूटा शीशा / जगदीश गुप्त

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हृदय में तुमको लिए चुप ही रहा, मैंने —
न कुछ सोचा न कुछ मुख से कहा मैंने,
स्नेहवश सब कुछ सहा मैंने,

किन्तु था वह सभी अत्याचार,
तुम समझ बैठे उसे अधिकार —
मेरे मौन रहने से।

था हमारा शुभ्र शीशे की तरह जो पारदर्शी प्यार,
पड़ गई — पड़ती गई उसमें अपार दरार।
जो समर्पण था सहज — वो बन गया सम्भार।

अपशकुन है मीत ! शीशे का दरक जाना।
कभी मानोगे — अगर अब तक नहीं माना।