भारत की संस्कृति के लिए... भाषा की उन्नति के लिए... साहित्य के प्रसार के लिए

टूटे हुए तारों को छूछ और कहा क्या / रंजना वर्मा

Kavita Kosh से
यहाँ जाएँ: भ्रमण, खोज

टूटे हुए तारों को छुआ और कहा क्या
मंज़र ये तबाही का है देखा या सुना क्या

लब पर है आह आँख में अश्कों की नमी है
अब इस के सिवा और मेरे पास बचा क्या

हम डर रहे हैं रंजो ग़म न कहीं ले कोई
ये दर्द भरे जख़्म हैं बस और रहा क्या

हैं जानते दिल की मेरी उदासियों का हाल
पर पूछ रहे दर्द कोई तुम ने सहा क्या

तूफ़ान है कश्ती भँवर में डोल रही है
है नाखुदा न साथ करें और दुआ क्या

ग़र वाह भी करते हैं तो है आह निकलती
टूटे हुए नगमों का तमाशा है भला क्या

दरिया को समन्दर में था जाना न जा सका
मौजों ने है अब अपना ही रुख मोड़ दिया क्या

सिसकी भी जो सुन लेते तो बेचैन थे होते
अब आँसुओं ने अपना मुकद्दर है रचा क्या

नीलम हो रही हैं तसव्वुर की बस्तियाँ
है वक्त का कोई नया तूफ़ान उठा क्या