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टूट टूटकर तरासा हुआ पत्थर बन रहा हूँ / कबीर शुक्ला

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टूट टूटकर तरासा हुआ पत्थर बन रहा हूँ।
बिखर बिखर मैं बद से बदतर बन रहा हूँ।
 
ज़र्ब पर ज़र्ब मरहम का अता-पता नहीं है,
अपने ज़ख़्म-सी कर चारागर बन रहा हूँ।
 
मेरे ज़ख़्मों को तो मरहम नसीब न हुआ,
औरों के ज़र्ब के लिये कारगर बन रहा हूँ।
 
क्या कहूँ किससे कहूँ कैसे कहूँ राज़े-दिल,
सीने में छिपा दर्दो-ग़म समंदर बन रहा हूँ।
 
जल रहा जुर्आ-जुर्आ आबे-तल्ख़ पी पी,
जू-ए-आतिश मैंअंदर ही अंदर बन रहा हूँ।
 
सीने में दबा रखा है दर्दो-ग़म की आँधियाँ,
ख़ुद में ही कोई तूफान बवंडर बन रहा हूँ।
 
तू भी ज़ख़्मे-दिल की दवा ले-ले 'कबीर' ,
चारागरी कर करके मैं कलंदर बन रहा हूँ।