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ठगी गई सपनों की सीता / सुनो तथागत / कुमार रवींद्र

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एक समय था
जब सपनों की बात हुई थी
वह युग बीता
 
घने अँधेरे में
अब भी हम खोज रहे हैं
दिया जादुई
एक परी थी, हाँ
सोने के पंखों वाली
रात वह मुई
 
नये पुजारी
बाँच रहे हैं अँधियारे में
उलटी गीता
 
पर्व मनाने की
आदत है
हम लाये हैं नये पटाखे
धुआँ उगलते हैं
घर भर में
देखो, सारे खिड़की-ताखे
 
खैरख्वाह ये
जो इस घर में लगा रहे हैं
वही पलीता
 
दिन-दिन भर
अंधी घाटी में
भटक रहे सूरज के घोड़े
परदेसी साईस
चतुर हैं -
गधे उन्होंने रथ में जोते
 
रूप बदलकर
रावण फिरते / ठगी गई
सपनों की सीता