ठीक ऐसे ही दिखते थे वो लोग / योगेंद्र कृष्णा
एक निर्जन-प्राय इलाका
ध्वस्त घरों के मलवे
पागल-से दिखते कुछेक मर्द
और मासूम बच्चे...
अपनी शिनाख्त तक खो चुके
मलवों में ढूंढ़ते हैं
थोड़ा-सा जुड़ाव
थोड़ा-सा अपनापन
और शायद
जिंदा रहने के लिए जरूरी
थोड़ी-सी आग
देखी है इन मासूम आंखों ने
पाशविक नृषंसता को भी
परास्त कर देने वाली हैवानियत...
अपनी मां बहनों का बलात्कार, कत्ल
और फिर भट्ठी की आग में
झोंक दिया जाना...
वे छूट गए हैं शायद
भट्ठी बने अपने घरों की राख में
मासूम उंगलियों से उनकी अस्थियां चुनने को...
उन्हीं में से एक बच्ची
जो नहीं जानती बलात्कार क्या होता है
आदमी को इस तरह मारा
या जिंदा जलाया क्यों जाता है
मलवे से चीखती है अचानक...
यह देखो अब्बू, अम्मी की चोली
और आपा का लहंगा है...
अब्बू दौड़े आते हैं, लंगड़ाते हैं
कपड़ों पर सूखे खून के धब्बों को देख कर
पता नहीं हंसते हैं या रो पाते हैं...
तभी हल्के धुंधलके में
एक गाड़ी पहुंचती है
लिखा है बड़े अक्षरों में
राहत और पुनर्वास...
उतरते हैं कुछ लोग
और बढ़ते हैं मलवे की ओर...
बच्ची उन्हें देख कर भागती है
हांफती है, मलवे में छुप जाती है
दहशत की गिरफ्त में
पुकारती है अपने पिता को...
अब्बू...अब्बू...फिर आ गए वो लोग
पिता हकलाते हैं कुछ शब्द...
नहीं बेटी, ये लोग तो राहत वाले हैं...
बच्ची नहीं मानती
उसकी मासूम आंखों में
दहशत अब भी तारी है...
नहीं...नहीं अब्बू
ठीक ऐसे ही दिखते थे वो लोग...