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ढह गये सारे क़िले अभिमान के / डी. एम. मिश्र

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ढह गये सारे क़िले अभिमान के
समझ में आता नहीं इंसान के

आप क्यों अमरित पिलाने आ गये ?
हम तो आदी हो गये विषपान के

हमको व्यंजन की नहीं दरकार है
दो निवाले ही बहुत ईमान के

बाद उसके कुछ नहीं बचता है फिर
दीप बुझ जाते हैं जब अरमान के

आप साँकल बंद कर लें द्वार की
सामने हम हैं खडे़ तूफा़न के

बच्चे इनके साथ जमकर खेलते
ये खिलौने हैं भले बेजान के