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तदारूक़-ए-ग़म हर सुब्ह ओ शाम करते रहे / 'महशर' इनायती

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तदारूक़-ए-ग़म हर सुब्ह ओ शाम करते रहे
के हम परस्तिश-ए-मीना-ओ-जाम करते रहे

बता गए हैं उसूल-ए-ख़ुलूस-ओ-हम-दर्दी
वो बाज़ फूल जो पत्थर का काम करते रहे

क़दम तो रख न सके कूचा-ए-निगाराँ में
उधर से आए गए को सलाम करते रहे

वो लुत्फ़-ए-सुब्ह-ए-तमन्ना के इंतिज़ार में था
हमेशा रातों की नींदें हराम करते रहे

ये आरज़ी से उजाले सुकूँ भी क्या देते
अँधेरे मिलते रहे हम क़याम करते रहे